खा रहीं हैं रोटियाँ ।
भूखे हमारे पेट को अब खा रहीं हैं रोटियाँ ।
पैदल चले तो साथ में अब जा रहीं हैं रोटियाँ ।
जो दान करने के लिए तुम बाँटते हो मुफ़्त में,
इज्ज़त गयी मजदूर की पर भा रहीं हैं रोटियाँ ।
अब काम हाथों में नहीं मजबूर कितने हो गए,
पर दान के या भीख के गुण गा रहीं हैं रोटियाँ ।
घर में सभी खुश हों वहाँ मैं तो सफर में चल रहा,
पर याद फ़िर बातें वही तो ला रहीं हैं रोटियाँ ।
जब चाँद को उम्मीद है बिखरे यहाँ पर चाँदनी,
काली अमावस रात ले फिर आ रहीं हैं रोटियाँ ।
मौसम बदलने फिर लगा फूल भी खिलते नहीं,
उजड़ा चमन कैसा यहाँ फल पा रहीं हैं रोटियाँ ।
दिखता नहीं कुछ भी कहीं आगे कहो कैसे बढ़ें,
सबके दिलों पर धुंध सी अब छा रहीं हैं रोटियाँ ।
अवधेश-21052020
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