ग़ज़ल
इनायत हो रही है ।
हुक़ूमत की ख़िलाफ़त हो रही है ।
बड़ी घटिया सियासत हो रही है ।
मुहब्बत में नजर आया ख़ुदा है,
मुहब्बत से मुहब्बत हो रही है ।
सभी खुश हैं हमारे फैसलों से,
तुम्हें ही बस शिकायत हो रही है ।
वफ़ा का खून करने की ख़ता की,
तुम्हें अब क्यों ख़जालत हो रही है ।
इबादतगाह में जाना मना है,
घरों में ही इबादत हो रही है ।
कहानी सुन रखी थी जो पुरानी,
वही देखो हक़ीक़त हो रही है ।
जहाँ झुकते सभी आगे हमारे,
वहीं पर अब ज़लालत हो रही है
कभी जो झोंपड़ी थी इस जगह पर,
वही ऊंची इमारत हो रही है ।
क़दम रखते ही मंजिल मिल रही है,
ख़ुदा की अब इनायत हो रही है ।
अवधेश-26042020
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