ग़ज़ल
शिकायत क्या ।
जो किया वो नहीं ख़िलाफ़त क्या ।
अब इसी को कहें सियासत क्या ।
दिखते हैं जो हसीन रातों में,
ख़्वाब होते भी हैं हक़ीक़त क्या ।
जेठ में तप रहे खड़े पर्वत,
तुम समझते इसे हरारत क्या ।
आंधियों में जले दिया उसको,
है बड़ी कोई मुसीबत क्या ।
हिंदुओ और मुस्लिमों सोचो,
भाइयों से नहीं मुहब्बत क्या ।
मान इंसानियत बड़ा मजहब,
इससे अच्छी भला नसीहत क्या ।
हर खुशी तो यहाँ मिली तुझ से,
जिंदगी अब मुझे शिकायत क्या ।
अवधेश-12042020
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