ग़ज़ल
कौन समझेगा हमारी बेक़सी को ।
इक्तिका की इक्तिज़ा हो जिस किसी को,
आशियाना तुम बनाकर दो उसी को ।
पल बदलते रंक या राजा बना दे,
वक़्त क्या से क्या बना दे आदमी को ।
छेड़ते जैसे लफंगे युवतियों को,
बांध लेते अश्क़िया बहती नदी को ।
सदियां गुज़रीं नहीं इतलाफ़ ऐसा,
क्या कहें इक्कीसवीं आसिम सदी को ।
फूल झरते हैं तुम्हारे इन लबों से,
तुम कभी मत रोकना अपनी हँसी को ।
तुम रहोगी साथ मेरे इस तरह से,
चाँद रखता साथ जैसे चाँदनी को ।
क्या करें जाएं कहाँ दिल रो रहा है,
कौन समझेगा हमारी बेक़सी को ।
अवधेश-27042020
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