ग़ज़ल
सूरत दिलनशीं की ।
जिसे चाहा उसी ने दुश्मनी की ।
जरूरत ही नहीं अब दोस्ती की ।
ढलेगा दिन नहीं तो रात कैसी,
जरूरत मौत को है जिंदगी की
पतंगा मिट गया शम्मा पे जल के,
हुआ बरवाद जिसने आशिक़ी की ।
अमावस रोशनी को ही हराती,
यहाँ खुद चाँद ने ही तीरगी की ।
समंदर में नदी पूरी समाती
मिटे जिस पर उसी की तिश्नगी की ।
हमें सच झूठ का अंतर पता है,
हमारे साथ तुमने दिल्लगी की ।
ज़मीं पर चाँद देखा था कभी जो,
हमें है याद सूरत दिलनशीं की ।
अवधेश
31032020
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