ग़ज़ल
अकेली डगर से ।
हुए तंग जब वो कबूतर बसर से ।
उड़े दूर वो फ़िर पुराने शज़र से ।
मिटाने सभी को वो शैतान आया,
जहाँ को बचा लो ख़ुदाया क़हर से ।
रहें चाँद सूरज अगर साथ मेरे,
तिमिर भाग जाए पलों में इधर से ।
नदी प्यार की हम बहाते रहेंगे,
भले नफ़रतें ही मिलेंगी उधर से ।
बड़े ही मजे से गुजर हो रही थी,
मुसीबत बुलायी न जाने किधर से ।
निकल कर घरों से जहाँ जा रहे हो,
बचोगे वहाँ क्या वबा के असर से ।
कभी तो पकड़ के तुम्हें बाँध लेंगे,
छुपोगे कहाँ तक हमारी नज़र से ।
सभी के दिलों में भरी है लबालब,
खुदा नफ़रतों के बचाना ज़हर से ।
कभी दूर घर से नहीं काम करना,
मिला ये सबक है अभी के सफ़र से ।
चलेंगे नहीं हम कभी भी अकेले,
लगेगा हमें डर अकेली डगर से ।
अवधेश-25052020
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