ग़ज़ल
वो आया निखरकर ही ।
चुराया चांद से जो नूर वो आया निखरकर ही ।
कली से फूल बन खुशबू बिखेरी खुद बिखरकर ही ।
किये वादे वफ़ा के पर ढहाये फिर सितम हम पर,
मिली उसको सजा पर वो रहा फिर भी सितमगर ही ।
अमीरी की न चाहत है न दुख उसको गरीबी का,
फकीरी में यहां झूमे करे मस्ती कलंदर ही ।
खराबी भी रखो तुम आदतों में ये जरूरी है,
अगर खारा न होता तो सभी पीते समंदर ही ।
हमारा दिल चुराया जिस किसी भी चोर ने छुपकर,
मिलेगा दम हमें उस चोर को तो अब पकड़कर ही ।
करो दुनिया यही अपनी यहाँ पर जीत कर फिर से,
अगर तुम जीतते हो आज कहलाओ सिकन्दर ही ।
बड़ी मुश्किल घड़ी है और मैं इसमें बुरा फंसा,
मिलेगा चैन मुझको तो यहाँ से अब निकलकर ही ।
नहीं मिलती अगर इज्जत सियासत में इसे छोड़ो,
कभी तुम जीत गर चाहो मिले पाला बदलकर ही ।
सड़ेगा पान भूलेंगे पढ़ा रोटी जलेगी ही,
अड़ेगा भी यहां घोड़ा बचें ये सब पलटकर ही ।
अवधेश
16032020
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