ग़ज़ल
अहसास पर्वत के ।
नदी छूकर निकलती है कभी अहसास पर्वत के ।
गली से वो गुजरती है बने किस्से मुहब्बत के ।
कभी होंगे यहाँ सच भी दिखे जो ख्वाब रातों में,
खुदा पूरे करेगा जो पले अरमान चाहत के ।
वही बदमाश जो करते यहाँ पर खूब बदमाशी,
दिखे वो आज सड़कों पर बने पुतले शराफत के ।
बनाया था कभी जिनको बहुत ही खास हमराही,
वही तो अब बजाते हैं बिगुल तगड़ी बगावत के ।
कभी ईमानदारी की नहीं उम्मीद यहाँ रखना,
किसे दें दोष अब दस्तूर बदले सब सियासत के ।
नहीं कुछ पास इनके जेब भी खाली मकाँ कच्चे,
गरीबों के इरादे हैं बड़ी ऊंची इमारत के ।
किसानों की मुसीबत का नहीं अंदाज़ है तुमको,
हुई बारिश गिरे ओले सुनो ये दर्द आफत के ।
यहाँ कुछ भी करो तुम झूठ या सच के सहारे से,
सभी को मानना है फैसले उसकी अदालत के ।
अवधेश awadhesh
12032020
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