#ग़ज़ल #अवधेश_की_ग़ज़ल
#परेशाँ_आज_हर_इक_आदमी_है
परेशाँ आज हर इक आदमी है ।
लपेटे हर किसी को मुफ़लिसी है ।
ठहरती जो नहीं बहती अकड़ में,
समंदर में समा जाती नदी है ।
सताते थे रुलाते थे हमें पर,
तुम्हारी ही हमें खलती कमी है ।
हमें धोखा मिला जब बेवफ़ा से,
जिगर में आग आँखों में नमी है ।
कहाँ सोए कहाँ जागे करे क्या ?
ठिकाना ढूंढती आवारगी है ।
ज़रा फ़िर से मेरा तू जाम भर दे,
नशीली शाम अब ढलने लगी है ।
समंदर हैं कई नदियाँ निगलते,
बड़ी ज़ालिम हमारी तिश्नगी है ।
मिला के खीर में अमृत खिलाती,
शरद पूनम की ये जो चाँदनी है ।
फँसी है जान आफ़त में सभी की,
मगर देखो उन्हें अपनी पड़ी है ।
इंजी. अवधेश कुमार सक्सेना-31102020
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