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#ग़ज़ल #अवधेश_की_ग़ज़ल
परेशाँ हैं सभी पाबंदियों से ।
परेशाँ हैं सभी पाबंदियों से ।
धुँआ उठने लगा है बस्तियों से ।
बनेंगे भीड़ में अपने पराए,
बचोगे कब तलक तन्हाइयों से ।
अकेलापन डराता है हमें भी,
तड़कती बादलों की बिजलियों से।
बिगड़ते ही रहे हैं काम सारे,
नसीहत भी मिली है गलतियों से।
नया पत्ता उगा जो शाख पर है,
उसे क्या डर हवा या आँधियों से ।
तड़पते थे कभी जो पास आने,
डरे हैं आज वो नजदीकियों से ।
भरोसा है हमें पूरा ख़ुदा पर,
नहीं डरते किसी की धमकियों से ।
इंजी.अवधेश कुमार सक्सेना- 17092020
शिवपुरी मध्य प्रदेश
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